Thursday, August 8, 2013

कौवा रोज़ चिल्लाता है


                सपनो का इक घर बनाया था

                अरमानो से बड़े उसे सजाया था

           
      फूल दो थे मेरी बगिया के

      इक मेमना भी प्यार लेने आता था

 
     ये बातें हैं बीते दिनों की 

    जब घर खिलखिलाता था

   आया जब से बुड़ापा कम्बंख्त 

   तब से कोई नज़र नही आता है

    कोई घर छोड़ गया कुछ कह कर

     कोई दिल तोड़ गया बूड़ी जानकर

     मेमना भी भाग गया कहीं

    अब घर में सन्नाटा है 

    कुछ मकड़ियों के जाले 

    कुछ मुड़ी तुड़ी यादो से भरा संदूक

    अब मुझ बुड़िया का हाल पूछने

    कोई नही आता है 

     लेकिन अब भी मुंडेर पर कौवा रोज़ चिल्लाता है

     मुझ बुड़िया को रोज़ इक आस बंधाता है 

12 comments:

  1. बहुत मार्मिक रचना ..

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  2. बहुत ही दिल को छूने वाली रचना सखी !!!!

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  3. मार्मिक रचना

    समय की गति के आगे
    मानव का मन
    हाथ उठाकर भागे
    बन अकिंचन
    क्षमा मांगे

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  4. लेकिन अब भी मुंडेर पर कौवा रोज़ चिल्लाता है

    मुझ बुड़िया को रोज़ इक आस बंधाता है ....sundar rachna

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