सपनो का इक घर बनाया था
अरमानो से बड़े उसे सजाया था
फूल दो थे मेरी बगिया के
इक मेमना भी प्यार लेने आता था
ये बातें हैं बीते दिनों की
जब घर खिलखिलाता था
आया जब से बुड़ापा कम्बंख्त
तब से कोई नज़र नही आता है
कोई घर छोड़ गया कुछ कह कर
कोई दिल तोड़ गया बूड़ी जानकर
मेमना भी भाग गया कहीं
अब घर में सन्नाटा है
कुछ मकड़ियों के जाले
कुछ मुड़ी तुड़ी यादो से भरा संदूक
अब मुझ बुड़िया का हाल पूछने
कोई नही आता है
लेकिन अब भी मुंडेर पर कौवा रोज़ चिल्लाता है
मुझ बुड़िया को रोज़ इक आस बंधाता है
बहुत मार्मिक रचना ..
ReplyDeleteआभार मीना ....
Deleteबहुत ही दिल को छूने वाली रचना सखी !!!!
ReplyDeleteआभार मधु सखी
Deletebehad marmik ......
ReplyDeleteआभार उपासना सखी
Deletebahut hi sundar rachna........
ReplyDeleteआभार संध्या जी
Deleteमार्मिक रचना
ReplyDeleteसमय की गति के आगे
मानव का मन
हाथ उठाकर भागे
बन अकिंचन
क्षमा मांगे
आभार सिद्धार्थ जी
Deleteलेकिन अब भी मुंडेर पर कौवा रोज़ चिल्लाता है
ReplyDeleteमुझ बुड़िया को रोज़ इक आस बंधाता है ....sundar rachna
आभार राजेंदर जी
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