Thursday, August 7, 2014

पाकीज़गी



भीड़ में भटकती रही
लेकिन सदा अकेली
कोई हाथ ही नहीं मिला
जिसे थाम सकती
सब हाथों पर 
कुछ न कुछ मैल थी
कैसे थाम लेती
जिसकी भी आंखो में देखा
एक वहशीपन देखा
इंसान कहीं न दिखा
पैर भी गंदगी से लथपथ
साथ कैसे चलती
मन में भी छल ही दिखा
भोलापन कहीं खो गया लगता है 
दुनिया में
मुझे क्यों हर जगह
कुछ न कुछ
गंदगी दिख ही जाती है
शायद इसी लिये अकेली हूँ
नहीं सह पाती गंदगी
मेरी पाकीज़गी मैली हो जायेगी.

6 comments:

  1. आपकी लिखी रचना शनिवार 09 अगस्त 2014 को लिंक की जाएगी........
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  2. "
    आपका लेखन बहुत सुन्दर है, सम्मानित कवयित्री रमा जी "

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