मुझे विषबेल
क्यों समझ लिया
माँ
मैं तो एक
कोंपल थी
तेरे ही तन की
क्यूं उखाड़ फेंका
फिर मुझे तूने
माँ
क्या तुझे मैं
लगी विषबेल सी
मैं तो तेरे ही
अंतर में उपजी
तेरे ही जैसी
तेरा ही रूप थी
माँ
जब जब मैंने
तेरी कोख में
आने की कोशिश की
तूने क्यूं मुझे
उखाड़ फेंका
माँ
एक बार
बाहरआने का
मौका दे कर
तो देखती
माँ
मुझ से ज्यादा
तेरा दर्द
कोई न समझता
माँ
क्योंकि जब जब
मुझे उखाड़ा गया
तेरी कोख से
जितना दर्द मुझे हुआ
माँ
उस से कहीं
ज्यादा दर्द
तुझे हुआ था
माँ
मेरे आंसू तो
बह ही नही पाये
लेकिन तूने
छिप छिप कर
जाने कितने तकिये
भिगोये थे
माँ
एक बार बस
हिम्मत कर के
देखती तो
माँ
ये विषबेल
तेरी अमरबेल
बन जाती
माँ
नि:शब्द हूँ .....
ReplyDeleteआभार निवेदिता जी
Deleteआप की सोच आज "संकलन" में ... आभार !
Deleteआभार निवेदिता जी
Deleteबहोत ही मार्मिक निःशब्द हूँ मै
ReplyDeleteआभार डेज़ी
Deleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन सीट ब्लेट पहनो और दुआ ले लो - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteआभार ब्लाग बुलेटिन जी
Deleteमार्मिक !
ReplyDeleteआभार सुशील कुमार जी
Deleteबहुत मार्मिक .......... उफ़्फ़ !!
ReplyDeleteएक सलाह माने, ऐसे चित्र से परहेज करें !!
मानवता को मारें नहीं !!
आभार मुकेश कुमार जी..
Deleteबहुत मार्मिक ..........
ReplyDeleteआभार संजय भास्कर जी
Deleteमार्मिक निशब्द
ReplyDeleteआभार आशा
Deleteउफ़्फ ! ये चित्र और ये शब्द कैसे ग्रहण करूँ - स्तब्ध हूँ !
ReplyDeleteआभार प्रतिभा सक्सेना जी
Deleteएकदम स्तब्ध !
ReplyDeleteहार्दिक आभार प्रतिभा जी
Deleteमार्मिक रचना
ReplyDeleteआभार ओंकार जी
Deleteहिम्मत करके देखती तो ये विषबेल अमरबेल बन जाती। मार्मिक।
ReplyDeleteआभार आशा जी
Deleteबहित मार्मिक !
ReplyDeleteबेटी बन गई बहू
आभार कालीपद जी
Deleteआभार अभिषेक कुमार अभी... जरूर
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