Tuesday, May 15, 2012

इंतज़ार की खिड़की

                 
वक़्त ने खींच दी चहरे पर लकीरे
आँखों में छा गया यादों का कोहरा
आज आईना देखा तो
गुजरा जमाना याद आ गया
तब भी ऐसे ही इंतज़ार करती थी
हर शाम को  तुम्हारा
तुम्हारे साईकल की घंटी
कब सुनती थी मै
यहीं बेठे बैठे देख लेती थी
तुम मुस्कुराते हुए आते थे
मै  इठला कर कुंडा खोलती थी
तुम्हारे हाथो में फूलो का गजरा देख
खुद पर ही इतरा  जाती थी
आँखों आँखों में कुछ बाते होती
मंद मंद मुस्कुराते हुए होंठ
कभी कुछ कहने की जरुरत ही न पड़ी
आज भी बैठी हूँ उसी खिड़की में
जानती हूँ अब कोई घंटी नहीं बजेगी
कोई साईकल नहीं आएगी
अब तो तुम्हारे पास कार है न
अब मै  इस तरह बैठी फूहड़ लगती हूँ
लेकिन क्या करू इसमें मेरा क्या दोष
ये तो वक़्त बदल गया है
मै  तो अब भी वैसी की वैसी ही हूँ
चहरे की लकीरों को मत देखो
मेरे दिल को देखो मेरी आँखों में
ये अब भी वैसी ही हैं
तुम्हारे लिए प्यार से भरी हुई
तुम साईकल से कार पैर आ गए
तो इसमें मेरा क्या दोष है
मेरी इंतज़ार की खिड़की तो अब भी वैसी ही है 

 

7 comments:

  1. मेरी इंतज़ार की खिड़की तो अब भी वैसी ही है ........bahut sundar

    ReplyDelete
  2. वाह ...बहुत खूब कहा है आपने ।

    ReplyDelete
  3. बदलते वक्त के साथ ह्रदय की व्यथा का एक सफल शब्द - चित्र-

    हमेशा भीड़ में फिर भी अकेलापन मेरी किस्मत
    क्यूँ अपनों से,खुदा से भी, मिली कोई नहीं रहमत
    जहाँ रिश्ते नहीं अक्सर वहीं पर प्रेम मिलता है
    मगर रिश्ते जहाँ होते क्यूँ मिलती है वहीं नफरत

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    http://www.manoramsuman.blogspot.com
    http://meraayeena.blogspot.com/
    http://maithilbhooshan.blogspot.com/

    ReplyDelete