वक़्त ने खींच दी चहरे पर लकीरे
आँखों में छा गया यादों का कोहरा
आज आईना देखा तो
गुजरा जमाना याद आ गया
तब भी ऐसे ही इंतज़ार करती थी
हर शाम को तुम्हारा
तुम्हारे साईकल की घंटी
कब सुनती थी मै
यहीं बेठे बैठे देख लेती थी
तुम मुस्कुराते हुए आते थे
मै इठला कर कुंडा खोलती थी
तुम्हारे हाथो में फूलो का गजरा देख
खुद पर ही इतरा जाती थी
आँखों आँखों में कुछ बाते होती
मंद मंद मुस्कुराते हुए होंठ
कभी कुछ कहने की जरुरत ही न पड़ी
आज भी बैठी हूँ उसी खिड़की में
जानती हूँ अब कोई घंटी नहीं बजेगी
कोई साईकल नहीं आएगी
अब तो तुम्हारे पास कार है न
अब मै इस तरह बैठी फूहड़ लगती हूँ
लेकिन क्या करू इसमें मेरा क्या दोष
ये तो वक़्त बदल गया है
मै तो अब भी वैसी की वैसी ही हूँ
चहरे की लकीरों को मत देखो
मेरे दिल को देखो मेरी आँखों में
ये अब भी वैसी ही हैं
तुम्हारे लिए प्यार से भरी हुई
तुम साईकल से कार पैर आ गए
तो इसमें मेरा क्या दोष है
मेरी इंतज़ार की खिड़की तो अब भी वैसी ही है
मेरी इंतज़ार की खिड़की तो अब भी वैसी ही है ........bahut sundar
ReplyDeletehardik dhanywad upasna sakhi
Deleteवाह ...बहुत खूब कहा है आपने ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार
Deleteबदलते वक्त के साथ ह्रदय की व्यथा का एक सफल शब्द - चित्र-
ReplyDeleteहमेशा भीड़ में फिर भी अकेलापन मेरी किस्मत
क्यूँ अपनों से,खुदा से भी, मिली कोई नहीं रहमत
जहाँ रिश्ते नहीं अक्सर वहीं पर प्रेम मिलता है
मगर रिश्ते जहाँ होते क्यूँ मिलती है वहीं नफरत
सादर
श्यामल सुमन
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हार्दिक आभार
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ReplyDeleteनायाब