Thursday, March 29, 2012

उम्मीद

आज फिर खत आ गया उनका, वो नही आए, दिल बेचैन है , आंखो मे आंसू भरे हुए चुपचाप डाकिए से ख़त लेकर अंदर आ गई , किवाड़ पर चिटकनी लगाते ही हिचकीयंा बाहर उबल पड़ी, ना जाने कितनी देर तकिया भीगता रहा, आंखे जब थक गई तो सर उठा कर देखा कमरे मे अंधेरा था, ना जाने कितनी देर रोती रही मैं, अब तो ना आंसूओ का हिसाब रह गया था ना इंतज़ार का । यंत्रवत सी उठी कमरे मे रौशनी करने, दिल मे चाहे जितने भी अंधेरे हों लोगो को कमरे मे उजाला चाहिए नही तो फिर देते रहो अनगिनत बेसर पैर के सवालो का जवाब, कौन समझता है किसी की पीड़ा, बस दिखावा किया और चलते बने लेकिन उनकी मुस्कुराट को पीठ पर चुभता हुआ आसानी से महसूस कर लेती हूँ । लेकिन ये क्या मेरी गलती है कि वो घर नही आते , हर छः महीने बाद जब भी आने का होता है तो एक सजते से जवाब के साथ ख़त आ जाता है , कभी अम्मा की बिमारी के लिये पैसे का बहाना हो या छुटकी (नन्द) की शादी का कुछ, बस बहला देते हैं और मैं हर बार घर की मजबूरीयों के आगे घुटने टेक देती हूँ लेकिन क्या मै समझती नही इन बहानो का कारण, पड़ोस की शीला का पति भी तो इनके साथ काम करता है , उसके घर मे हम से ज़ियादा मजबूरीयां है लेकिन वो कैसे हर छुट्टी पर घर भागा आता है , गली में सब की चुभती बातों का सामना कैसे करती हूं ये तो बस भगवान ही जानता है, शीला जब बता रही थी कमला भाभी को तब सब सुन लिया था मैने खिड़की से, कितने चटखारे ले कर बता रही थी कि बाबू लाल जी ने वहाँ दूसरी रख छोड़ी है तभी तो घर नही आते हमारे शर्मा जी देखो कैसे भागे आते हैं फिर मंद मंद मुस्कुराट और फुसफसाती हुई हंसी की आवाज़ें, कैसा कसैला सा हो गया था मन ये सब सुन कर , लेकिन इसमे मेरी क्या गलती है जो सब के कटाक्ष का निशाना मै होती हूँ , अम्मा जी भी तो कभी कुछ नही बोलती इनहे, उन्हे भी तो बेटे का पैसा चाहिए बस बात बे बात मुझे ही कोसती हैं कि कैसी मनहूस है जो पति को बांध कर नही रख सकी , इस कम्बख्त के कारण तो हमारा बेटा घर नही आता , मै अवाक सी उनका मुंह देखती रह जाती हूँ , दिल मे आता है की पूछूं अम्मा जी आप स्त्री होकर भी मेरा दर्द नही समझती , लेकिन दिल की बात ओंठो पर कभी नही पंहुचती अंदर ही कंही घुट कर दम तोड़ देती ।क्या करू कहां जांऊ समझ नही आता , अब तो आदत सी हो गई है इन बातो की, इसीलिए बाहर निकलना छोड़ दिया है , घर के कामो मे ही उलझी रहती हूँ दिनभर , बस रात को जब सबकी बातें याद आती हैं तो तकिया चुपचाप भीगता रहता है , इसी तरह छः महीने निकल जाते हैं और न चाहते हुए भी फिर इक उम्मीद जाग पड़ती है जो पैरो को जबरन घसीट कर दहलीज़ तक ले जाती है , कान भी हर साईकल की घंटी पर चौकन्ने हो जाते हैं कि शायद इनके आने की खबर आ जाए........

2 comments:

  1. रामाजय जी...आपकी इस अभिव्यक्ति में शामिल दर्द का तो मैं कुछ नहीं कर सकता मगर यह शुभकामना अवश्य दे सकता हूँ कि जल्द ही कुछ ऐसा हो कि आप नाचते हुए यह कह सह सको कि मेरा पिया घर आया ओ राम जी...!!!

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    1. Dhanyawad Rajeev ji...Mere Pati Mere Pass hain....Baki aap ki Shubh Kamnao ka Dhanywad...:))

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