बरसो बाद खुद का ख्याल आया
आइना नहीं याद आया
कुछ अपने अंतर में कुलबुलाता सा पाया
अपने लेखन का ख्याल आया
भूल गयी रसोई और घर बार
सब कुछ छोड़ कर थाम ली कलम
क्या लिखू कुछ समझ ना आया
लेकिन मन की उड़ान को कोई रोक न पाया
चोरी से ही लिखी हुई
दिल की बातें याद आ गयी
रोज़ लिखा करती थी सब से छुप कर
कोई देख ना ले मन में यही डर था समाया रहता था
नहीं जानती की क्या क्या लिख रखा था मैंने
कहीं कविता की जगह
मैंने सालन तो न था बनाया
लेकिन जो भी था
मेरे मन की बाते थी
जिन्हें आज तक था कोई समझ ना पाया
कोई सराहे न सराहे
आज मन को खुद ही सराहा मैंने
इक कसक की जगह
गहरा सूकून पाया मैंने
जब अपनी डायरी को पुस्तक के रूप में पाया
आज मैं गृहणी के साथ लेखिका भी बन गयी
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