Sunday, August 24, 2014

गृहणी और लेखिका



बरसो बाद खुद का ख्याल आया

 आइना नहीं याद आया

कुछ अपने अंतर में  कुलबुलाता सा पाया

 अपने लेखन का ख्याल आया

भूल गयी रसोई और घर बार

 सब कुछ छोड़ कर थाम ली कलम

 क्या लिखू कुछ समझ ना आया

 लेकिन मन की उड़ान को कोई रोक न पाया

चोरी से ही लिखी हुई


 दिल की बातें याद आ गयी

रोज़ लिखा करती थी  सब से छुप कर


 कोई देख ना ले मन में यही डर था समाया रहता था 


 नहीं जानती की क्या क्या लिख रखा था मैंने 


 कहीं कविता की जगह 


 मैंने सालन तो न था बनाया 


लेकिन जो भी था 


 मेरे मन की बाते थी 


 जिन्हें आज तक था कोई समझ ना पाया 


कोई सराहे न सराहे


आज मन को खुद ही सराहा मैंने 


 इक कसक की जगह


गहरा सूकून पाया मैंने 


जब अपनी डायरी को पुस्तक के रूप में पाया

आज मैं गृहणी के साथ लेखिका भी बन गयी
 
गृहणी
 

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