Wednesday, December 4, 2013

सजा भुगतने की बारी



    आज रोती हैं उदासियाँ भी हमारी

      कयूँ कद्र न की तुमने हमारी 

    हम ने तो वफा से निभा दी रस्मे उलफत

   तुम तो बेवफा हो कर भी मुस्कुरा कर चल दिये

    क्या कभी याद न आयेगी तुम्हे वफा हमारी

   लेकिन बकद्रो से ऐसी उम्मीद करना भी खता है हमारी

      बहुत चाहा की मर कर रस्में वफा निभा दें

    फिर सोचा उसे हमारी मौत पर भी क्या दुख होगा

     जिसने हर कदम पर की बेकद्री की है हमारी

         अब नहीं रोना और न मरना है

     माना तुम्हारे लिये तो इक खिलौना हूँ

    लेकिन अब जिंदा हो गई है मेरे अंदर की नारी

       और आज ये वादा है खुद से मेरा

     हर बेवफा पुरूष को सबक सिखाना है

    न खुद रोना है और न किसी और को रोने देना है

   बहुत हो गया तुम मर्दो का अत्याचार हम औरतो पर

       अब सज़ा भुगतने की बारी तुम्हारी है

5 comments:

  1. बहुत सुन्दर .. बहुत हो गया तुम मर्दो का अत्याचार हम औरतो पर

    अब सज़ा भुगतने की बारी तुम्हारी है

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आप की इस प्रविष्टि की चर्चा शनिवार 07/12/2013 को चलो मिलते हैं वहाँ .......( हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल : 054)
    - पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर ....

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