Thursday, January 10, 2013

महिला दिवस और गाँव की अल्हड

वक़्त

कितना वक़्त गुज़र गया इस गाँव में आये मुझे ब्याह के लेकिन फिर भी अपना नहीं कह पाई कभी इसे ,सदा ये ही मूंह से निकलता है मेरी ससुराल का गाँव ,कभी अपनापन मिला कब यहाँ ,जब देखो तब कटाक्ष या हर बात पर तेदा सा मूंह बना देना ,जितना भी करो कभी कोई संतुष्ट नहीं होता ,कोई न कोई कमी निकल ही आती है मेरे काम में और अगर काम ठीक हैं तो कपडे ढंग के नहीं पहने या बाल कैसे बांधे हैं
      जो मर्ज़ी कर लो यहाँ सब के लिए लेकिन सब को संतुष्ट कर पाना बस के बहार की  बात है ,
               अब तो आदत सी हो गयी है ये सब सुनने और सहने की ,जब नयी नयी ब्याह कर आई थी तो मब बहुत आहात होता था ,अब तो जैसे आदतसी हो गयी ,
             कहाँ मेरा अपना गाँव ,अपना गाँव कहते कहते ही एक मधुर सी मुस्कान आ जाती है होटों पर अपने आप और एक छोटा सा शायद चालीस के करीब ही घरों वाला गाँव याद आ जाता है और उसके साथ जुडी कितनी समृतियाँ आँखों के आगे छा जाती हैं
   छोटी बड़ी पगडंडीयां ,कल कल बहते हुए झरने की आवाज़ ,एक छोटा सा लगभग टूटने वाला पुल उस पर दौड़ता बकरी का बच्चा और उसे पकड़ने के लिए भागती हुई एक लड़की ,कुछ गिरती पड़ती ,हांफती ,आवाजें लगाती हुईएक अल्हड सी लड़की ,जिसे शायद और कोई काम नहीं याद था उस बकरी के बच्चे के सिवा ,वो उसका नाम ले कर बदहवास सी भागती चली जा रही थी

     धयान से देखा तो ये मैं ही थी जो घास पर पसरी हुई जोर जोर से रो रही है और लाली लाली चिल्ला रही है ,लाली मेरा छोटा सा मेमना ,मेरी जान था लेकिन कितना नटखट था ,ज़रा सा उसे लेकर बहार आती तो सरपट भाग खडा होता था ,और मै ऐसे ही भागते भागते थक कर रोना शुरू कर देती थी
     लेकिन ये अल्हड़पन ये मस्ती तो कुछ ही दिन के मेहमान थे तब ये नहीं पता था ,एक दिन खूब रोबदार मूंछों वाले ठाकुर साहब आये और मुझे पसंद कर गए ,बस फिर क्या था सारा घर जैसे खुशियों से नहा उठा था ,बस मै उन खुशियों को नहीं समझ पायी और रोती रही ,इतना गुस्सा आ रहा था तब सब पर ,मुझे दूर भेजने की बात से सब खुश क्यों हैं ,शायद ये मुझे प्यार ही नहीं करते ,तब मन में ठान लिया की ठीक है मै भी वापस नहीं आउंगी इन सब के पास ,होने दो खुश इन्हें

   और यही सोचती सोचती मै विदा हो कर यहाँ आ गयी जहाँ मेरी कोई कदर नहीं ,कोई परवा नहीं ,मेरे गाँव मेरे घर में मेरी जली हुई रोटियों को भी बड़े चाव से खाते थे सब और यहाँ जितनी मर्ज़ी चाकरी कर लो सब एक सी ,कितनी नादाँ थी मै जो अपनों पर गुसा होते होते
    और उल्टा सीधा सोचते सोचते एक दिन बालिका वधु बन कर आ गयी यहाँ और तब से गाँव जाना ही कहाँ हो पाया है ,दो बार ही गयी थोड़ी थोड़ी देर के लिए और वो भी माँ और बाबु जी के निधन पर ,मूह लपेटे घूँघट काडे रोती बिलखती वापस आ गयी ,अब शायद कभी ना जा पाऊं  अपने गाँव ,बस यादों में ही जिंदा रहेगा मेरा गाँव और इस गाँव से मेरी अर्थी उठ जाएगी 

आज सुना कोई बहुत जोर जोर से चिल्ला रहा था की आज महिला दिवस है ,मै समझ नहीं पाई ,ये महिला दिवस क्या होता है ,छोडो ये सब सोचना ,खेत में देरी हो गयी तो फिर बवाल मचेगा ,रहने दो ये महिला दिवस को ,कभी फुर्सत में पूछूंगी किसी से

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